*संदर्भ:* यह सुंदर कथा पूज्यनीय मोरारी बापू द्वारा सुनाई गई राम कथा से है,
।। जय सियाराम सदा ।।
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🌱 एक बड़े पहुँचे हुये महात्मा जी थे, वे दिन भर भगवान राम के नाम सुमिरन में डूबे रहते थे। रात्रि में सिर्फ एक प्रहर (3 घंटे) ही सोते थे जो उनके लिये पर्याप्त था। बाकी पूरे समय वे भक्ति में लीन रहते थे और सादगीपूर्ण जीवन व्यतीत करते थे।
एक रोज़, राज्य के महाराज जी अपने दीवान जी के साथ प्रजा की खुशहाली देखने के लिये भ्रमण पर निकले, रास्ते में उन्हें एक छोटी सी सादगीपूर्ण कुटिया मिली।
कुटिया के बाहर एक महात्मा जी विराजे थे,उनके चेहरे पर बहुत तेज और सौम्यता थी। महात्मा जी के समक्ष एक भिक्षा पात्र रखा हुआ था।
महात्मा जी की कुटिया को देख कर महाराज का हृदय पसीज गया। उन्होंने दीवान जी से कहा, दीवान जी, कृपया महात्मा जी को भरपूर स्वर्ण मुद्रायें दे दें ताकि वे अपना सुंदर सा घर बना सकें, सुखद जीवन व्यतीत कर सकें। सुखी हो सकें।
दीवान जी ने कहा, राजन् हम आपके आदेशानुसार, इन्हें स्वर्ण मुद्रायें अवश्य दे देते हैं किन्तु, इन स्वर्ण मुद्राओं को पा कर अथवा उपयोग कर महात्मा जी सुखी होंगे कि नहीं यह कहना कठिन है। इतना कह कर दीवान जी ने महात्मा जी के पात्र में ढेर सारी स्वर्ण मुद्रायें रख दीं।
महाराज जी, दीवान जी की बात को सुनकर हैरान हो गये। उन्होंने दीवान जी से पूछा की उन्होंने यह क्यों कहा कि स्वर्ण मुद्रायें मिलने के बाद भी महात्मा जी सुखी होंगे अथवा नहीं यह कहना कठिन है। यह सुनकर दीवान जी ने कहा कि राजन् यह महात्मा इस जगत के नहीं बल्कि परा जगत के हैं, यह तो समय ही बतायेगा कि क्या महात्मा जी को यह स्वर्ण मुद्रायें सुख दे पायेंगी और क्या धन सुख का साधन है।
कई दिन बीते, एक रोज़ महाराज को दीवान जी की बात याद आई कि क्या धन सुख का साधन है ? महाराज ने दीवान जी को बुला भेजा और कहा कि हमें निरन्तर आपके द्वारा कही बात याद आती है कि क्या धन सुख का साधन है? इस बात का फैसला कैसे करें ? दीवान जी ने कहा कि इस बात का फैसला तो महात्मा जी से मिलकर ही हो पायेगा। चलिये महात्मा जी के दर्शन करने चलें।
जब दोनों उन महात्मा जी की कुटिया में पहुँचे तो देखा के महात्मा जी पहले की तरह ही अपनी कुटिया के बाहर राम नाम में लीन बैठे थे, भिक्षा पात्र पूर्व की तरह ही उनके समक्ष रखा था। पात्र में स्वर्ण मुद्रायें भी उसी प्रकार रखी थीं जैसे दीवान जी रख गये थे।
यह देख कर महाराज जी को आश्चर्य हुआ। उन्होनें दीवान जी से इसका कारण जानने को कहा। महाराज जी के आदेशानुसार, दीवान जी ने महात्मा जी से स्वर्ण मुद्राओं के उपयोग न करने का कारण पूछा।
महात्मा जी ने महाराज जी और दीवान जी को प्रणाम कर विनम्रतापूर्वक आग्रह किया कि वे जल्द से जल्द अपना सोना वापस ले जायें। महात्मा जी ने आगे कहा कि आपके सोने के कारण हमारा सोना कठिन हो गया है।
पहले, हमारी साधना के कारण, एक प्रहर (तीन घंटे) सो कर भी हम अपनी नींद पूरी कर लेते थे और बाकी समय का सदुपयोग साधना में करते थे।
जब से आपने यह स्वर्ण मुद्रायें दी हैं, इनकी सुरक्षा की चिंता में हम सो नहीं पाते हैं और दिन भर उनींदे रहते हैं जिस वजह से हमारी साधना भी अधूरे मन से होती है।
हम जानते हैं कि आपने हमारे भले के लिये ही यह स्वर्ण मुद्रायें दी हैं, किंतु हम क्षमाप्रार्थी हैं, हमें इन स्वर्ण मुद्राओं के कारण बहुत नुकसान हो रहा है, आप यह मुद्रायें अपने साथ वापस लेते जायें।
महात्मा जी का उत्तर सुनते ही दीवान जी और महाराज जी एक दूसरे को देख कर मुस्कुरा उठे। महाराज जी को अपने प्रश्न का उत्तर मिल चुका था। वे बोले कि दीवान जी अपने सही कहा था यह महात्मा जी इस जगत के नहीं बल्कि परा जगत से हैं और
*असल धन तो राम नाम ही है।*
*सादर*
*जय प्रियतम अवतार मेहेरबाबा जय जिनेन्द्र सदा*
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Chandar Meher