शायद सन् 1990 की बात है। इलाहाबाद एग्रीकल्चरल इंस्टीट्यूट के पास स्थित हमारे एक दोस्त का घर था जहाँ पहली बार केबल टी. व्ही.देखा और केबल टी. व्ही. देखा। दूरदर्शन देखने के आदि, हमें टी. व्ही. पर तेज़ी से बदलते दृश्यों ने उलझा दिया। कुछ समझ में ही नहीं आ रहा था।
स्क्रीन पर तेज़ी से बदलते दृश्य के, दूरदर्शन के समय के हम,आदि नहीं थे। किंतु, केबल टी.व्ही., इंटरननैट और सोशल मीडिया में तेज़ी से बदलते दृश्य, जो कि प्रारंभ में हमें चक्कर खिला देते थे, अब हमारी आँखे, हमारा दिमाग और हमारा मन, इस असामान्य, असहज और अस्वाभाविक गति का आदि हो चुका है।
जैसे जैसे उम्र बढ़ती है वैसे वैसे शरीर ही नहीं बल्कि मन मस्तिष्क पर भी वात का प्रभाव बढ़ने लगता है और नैसर्गिक रूप से इनकी गति कम होने लगती है।
स्क्रीन की तेज़ी से बदलते दृश्य हमारी स्वाभाविक गति के विपरीत कार्य कर नुकसान पहुँचाती है।
आजकल जगह जगह पर स्क्रीन टाईम घटाने की बात ज़ोरों से हो रही है, सोने के एक घंटे पहले सभी स्क्रीन ऑफ करने की बात सुनने को मिलती है। यहाँ तक सप्ताह में एक दिन स्क्रीन फास्टिंग की भी अनुशंसा सुनने को मिल रही है।
लगता है बात में दम तो है।
जय प्रियतम अवतार मेहेरबाबा जय जिनेंद्र सदा 😇😇
🙏🌈🌈🙏
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Chandar Meher