असन्त और सन्त
संत असंतन्हि कै असि करनी।
जिमि कुठार चंदन आचरनी॥
काटइ परसु मलय सुनु भाई।
निज गुन देइ सुगंध बसाई॥
ताते सुर सीसन्ह चढ़त जग बल्लभ श्रीखंड।
अनल दाहि पीटत घनहिं परसु बदन यह दंड॥
श्री रामचरितमानस जी के उत्तर कांड में गोस्वामी तुलसीदास जी बताते हैं कि भरत जी, लक्ष्मण जी, और शत्रुघ्न जी के आग्रह पर हनुमान भगवान, राम भगवान से संत और असन्तों के बीच के अंतर को स्पष्ट करने के लिये निवेदन करते हैं।
अंतर स्पष्ट करते हुये भगवान, कुल्हाड़ी का उदाहरण देते हुये कहते हैं कि कुल्हाड़ी, चंदन के पेड़ को काटता है किन्तु चंदन का का पेड़ अपनी सुगंध कुल्हाड़ी को दे देती है। अपने इस कृत्य के कारण कुल्हाड़ी के फल को आग में तपा कर पीटा जाता है किन्तु चन्दन देवताओं के शीश पर चढ़ता है। कुल्हाड़ी की प्रवत्ति असन्तों की किन्तु चन्दन की प्रवत्ति सन्तों की है।
अविवेक और विवेक
सुनहु तात माया कृत गुन अरु दोष अनेक।।
गुन यह उभय न देखिअहिं देखिअ सो अबिबेक।।
आगे भगवान राम विवेक और अविवेक के बीच अंतर स्पष्ट करते हुये बताते हैं कि गुण और दोष, माया रचित है और इनकी कोई वास्तविक सत्ता नहीं हैं। गुण-दोष को नहीं देखना विवेक है जबकि इन्हें देखना अविवेक है।
जय सियाराम जय मेहेरामेहेर जय जिनेन्द्र सदा
आदरणीय सुधिजन,
ReplyDeleteसादर प्रियतम अवतार मेहेरबाबा की जय जय जिनेन्द्र सदा,
आपसे विनम्र आग्रह है कि कृपया लेख के बारे में अपने अमूल्य विचार और सुझाव कमेंट बॉक्स में अंकित कर प्रोत्साहित करने का कष्ट करें,
सादर जय प्रियतम अवतार मेहर बाबा जय जिनेंद्र सदा