भाषा के आधार पर बाँटना अब ठीक नहीं। अब तो कोई नया तरीका ढूँढना होगा. बात उस समय की है जब मेरा प्रिय जूनियर अनुराग जबलपुर आया हुआ था. एक दिन हम दोनों, हमारे फॅमिली फ्रैंड डॉ (मिसेज़) हक के घर गए.
डॉ हक शहर के जाने माने गर्ल्स कॉलेज के उर्दू विभाग की प्रोफ़ेसर और विभागाध्यक्षा थीं। आपने हम लोगों को देखते ही चिंता जताई ‘ आज कल नौजवानों की लाइफ में कितनी जद्दोजहद है’. फ़िर कुछ रुक कर वे बोलीं ‘यानि क्या बोलते हैं हिन्दी में स्ट्रगल’।
कुछ देर बाद उनके घर से निकलते हुए , अनुराग (जो अब एक पत्रकार है) ने वे शब्द दोहराए ‘जद्दोजहद, यानी हिन्दी में क्या कहते हैं स्ट्रगल’ और हम दोनों मुस्कुरा उठे, बिना यह सोचे की एक दिन ये शब्द भाषाई आधार पर बाँटने वालों के लिए चुनौती बन उठ खड़े होंगे।
हकीकत यह है कि यदि किसी दोस्त को हिंदी में ईमेल लिखकर भेज दें तो दूसरी तरफ से दो ही वाक्य आते हैं: १) यह क्या कर दिया, २) यह कैसे किया. दिल्ली में रहते-रहते हिंदी का पतन कैसे हुआ, यह मैंने पच्चीस सालों तक लगातार देखा है. हालत यह है कि अब हिंदी सिर्फ बसों पर लिखी दिखाई देती है, बाकी सब जगह अंगरेजी ने घर बसा लिया है. भाषा से बदलकर अब हिंदी कहीं "बोली" बनकर न रह जाये.
ReplyDeleteचंदर भाई जब भी वह किस्सा याद आता है, मुस्कराहट अभी भी चेहरे पर आ जाती है लेकिन दर्द भी होता है, ऐसा कौन सा पहलू बचा है जहाँ हम बंटे न हों? पहले 'यूनिटी इन डाईवरसटी' का नारा लगाने वाले भूल गए अति हर चीज़ की बुरी है, शायद अति डाईवर्स समाज और राष्ट्र का ही परिणाम हैं ये तरह तरह के "वाद" . रही भाषा तो लगता है कि हमारे विदेशी दोस्त हमसे अधिक परिष्कृत हिन्दी बोलते हैं...
ReplyDelete