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जैन धर्म में मनाया जाने वाला क्षमा वाणी का पर्व एकदम निराला है साथ ही क्षमा वाणी की अवधारणा भी बहुत ही प्यारी है। इस पर्व का अर्थ बहुत गहरा है।
यह पर्व, दस दिवसीय पर्युषण पर्व, पूर्ण होने (अनंत चतुर्दशी के दिन) के पश्चात् अगले दिन पूर्णिमा को मनाया जाता है।
इस दिन, प्रतिवर्ष, जैन धर्मावलंबी, अपने परिजनों व परिचितों के प्रति, जाने अनजाने हुई भूल-चूकों के लिये, एक दूसरे से क्षमा याचना करते हैं और दूसरे क्षमाप्रार्थियों को क्षमा करते हैं, इस तरह वे अपने मन को पवित्र करते हैं ।
अपनी भूल और गलतियों को स्वीकार करना, फिर उनके लिये क्षमा माँगने में बहुत आत्मिक शक्ति की आवश्यकता होती है । वस्तुतः अपनी गलतियों के लिए माफी माँगना सरल नहीं है लेकिन इससे कहीं अधिक मुश्किल है किसी व्यक्ति को हृदय से क्षमा करना। इन दोनों ही अवस्थाओं में मनुष्य का अहंकार आड़े आता है। क्योंकि जब तक अहंकार समाप्त न हो जाये तब तक क्षमा माँगना अथवा क्षमा करना लगभग असंभव होता है।
इसी की सरल व्याख्या करते हुए प्रियतम अवतार मेहेरबाबा ने बताया है कि भूल-चूक में अथवा जान बूझकर किसी व्यक्ति के प्रति हमारे द्वारा किये गये अन्याय के लिये क्षमा माँगना अथवा किसी अन्य व्यक्ति द्वारा हमारे प्रति किये गये अन्याय को क्षमा करने से हमारे मन पर अंकित कर्म की छाप (कर्म बंध अथवा संस्कार) से हम मुक्त हो जाते हैं और कर्मबंध का यह बोझ हमारे अगले जन्म में नहीं जाता है।
इस तरह हमारी क्रमिक आत्मिक उन्नति होती जाती है, जब तक की ईश्वर कृपा से हमारा मन पूर्ण रूपेण निश्छल हो जाये।
ऐसा प्रतीत होता है कि क्षमा वाणी का पर्व अहंकार त्याग की भी उत्तम राह है।
*जय प्रियतम अवतार मेहेरबाबा जय जिनेन्द्र सदा*
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आदरणीय,
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सादर
जय प्रियतम अवतार मेहेरबाबा जय जिनेन्द्र सदा
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