कृषि नगर, अधारताल, जबलपुर में तिवारी अंकल के परिवार के साथ लगभग 16 साल हमारे परिवार ने खुशी–खुशी गुज़ारे।
दोनों परिवार अड़ोस–पड़ोस के अमरीकन बंगलों, बी–5 और बी–6 में रहा करते थे। यह दोनों बंगले, बीच में बने दो गैरेजों से जुड़े थे, जहाँ शाम होने के बाद अंधेरा हो जाया करता था।
दोनों बंगलों के पोर्च दूर–दूर थे जिसमें हल्के जलने वाले 40–40 वॉट के छोटे–छोटे पीले लट्टू (बल्ब) जला करते थे। इन लट्टूओं की लाईट गैरेज तक न पहुँचती थी इसलिये दो गैरेजों के सामने अंधेरा ही रहा करता था।
रोज़ शाम को जब हम दोस्तों के साथ खेलने के लिये जाते थे तो हमारे घरों के बीच के दो गैरेजों और फिर तिवारी अंकल के घर के पोर्च को पार करके जाना होता था। घर लौटते समय भी पहले तिवारी अंकल के घर का पोर्च फिर दो गैरेजों को पार कर के हम घर पहुँचते सकते थे।
हम छोटे ही थे, और घर में अनुशासन थोड़ा सख़्त था। शाम को अंधेरा होने के पहले घर वापस आना एक ज़रूरी नियम था। जब कभी देर होती और अंधेरा हो जाता था तो दुनिया के सबसे बड़े डर का सामना करना पड़ता था, और वो था –
दो गैरजों के सामने का अंधेरा।
यकीन कीजिये, हम तिवारी अंकल के पोर्च के लट्टू की रौशनी से अपनी आँख बंद कर, साँस रोक कर, पूरी दम से दौड़ लगाते थे और दो गैरेजों के सामने के अंधेरे को पार कर अपने घर के पोर्च के लट्टू की रौशनी तक पहुँच कर ही आँख खोल कर साँस लेते थे।
एक अजीब बात थी, जब दिन की रौशनी में इन्हीं गैरजों के सामने से निकलते थे तो पता नहीं यह डर कहाँ ग़ायब हो जाता था। शायद
रौशनी हमें देखने और समझने की ताकत वापस कर देती थी और डर को दूर कर देती थी।
खुशी की बात है कि एक छोटे से दिये में भी वो ताकत होती है कि उसकी रौशनी भी बड़े से बड़े अंधेरे को खत्म कर सकती है।
यहाँ एक बात बड़ी अच्छी सीखने को मिली कि भय का मूल, अज्ञान के अंधकार में है और ज्ञान का प्रकाश, भय के अंधकार को बड़ी सरलता से मिटा सकता है।
जय प्रियतम अवतार मेहेरबाबा जय जिनेंद्र सदा !!!!!!!
🙏🌈🌈😇😇🙏
बहुत सुंदर! आप का ब्लॉग हमारा पसंदीदा है!🪻🪻
ReplyDeleteथैंक–यू बच्चा, प्रियतम बाबा खूब कृपा करें, जय प्रियतम अवतार मेहेरबाबा जय जिनेंद्र सदा 😇😇🙏🙏🌈🌈
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