बहुत समय पहले की यह बात है. दो साधू अपने गुरु के पास आश्रम लौट रहे थे. रास्ते में एक नदी पड़ती थी. जब वे इस नदी के पास पहुँचे तो उन्हें एक स्त्री दिखाई पड़ी. वह यह नदी पार करना चाहती थी. दोनों साधुओं को देख कर उसने साधुऑ से निवेदन किया कि जब वह नदी के इस पार आई थी तब नदी में पानी कम था पर अब शाम होते होते नदी चढ़ आई है. मुझे नदी के उस पार जाना है. वहाँ मेरे छोटे छोटे बच्चे मेरा इंतज़ार कर रहे होंगे. कृपया मुझे मदद करीये और नदी के उस पार पहुँचा दीजीये.
पहले साधु ने कहा नहीं मैं स्त्री को छू भी नहीं सकता तो मैं आप को उस पार कैसे पहुँचाऊँ. मुझे क्षमा कीजीये. स्त्री ने करुणा भाव से दूसरे साधू को बच्चॉं की दुहाई दी. दूसरे साधू का दिल पसीज गया. उसने इस स्त्री को उठा कर नदी के दूसरे पार उतार दिया. स्त्री ने साधू का आभार प्रकट किया और घर की ओर चल दी.
दोनों साधू आश्रम की ओर बढ़ चले. लगभग पाँच कोस चलने के बाद पहले साधू ने दूसरे साधू से नाराज़गी ज़ाहिर करते हुए कहा के मैं गुरुजी को अवश्य बताऊँगा तुमने स्त्री को उठाया था. दूसरे साधू ने मुस्कुराते हुये बड़े ही शाँत स्वर में उत्तर दिया, उस स्त्री को तो मैं पाँच कोस पहले ही उतार आया तुम उसे अभी तक उस बोझ को उठाये घूम रहे हो?
आखिर में तुषार गुरुजी ने मुस्कुराते हुए बताया के श्री श्री कहते हैं अध्यात्म का यह नियम है की कहीं भी अटको नहीं मन में यदि विचार आते हैं तो बस उन्हें आने दो और फिर जाने दो, बस दृष्टा भाव रखो. .
प्रिय चंदर,
ReplyDeleteइस कथा को पढ़कर मुझे एक और साधू की याद हो आई। इसी तरह का वाकया था। वह अपने मित्र साधु नं-2 के साथ नदी किनारे पहुँचा। तभी एक युवती ने दोनों से सहायता मांगी। मेरे वाले साधु ने सोचा कि युवती के स्पर्श से उसके साधुत्व विचलित हो सकता है, अत: उसने मना कर दिया, वहीं दूसरी ओर साधु नं-2 ने सहर्ष उसे लिफ़्ट दी। नदी पार कराई। युवती को यूँ निर्जन नदी तट पर छोड़ना ठीक नहीं है अत: उसे घर तक पहुँचा आया। युवती ने धन्यवाद देने के लिए कॉफ़ी पिलाई। दूसरे दिन साधु नं-2 और वही युवती वरमाला पहने मेरे वाले साधु के पास आए और आशीर्वाद मांगा। मेरे वाले साधू ने खूब खरी-खोटी सुनाई, ''यही है तेरा व्रत-तप? भूल गया अपना लक्ष्य?''
साधु नं-2 ने कहा, ''बिलकुल नहीं भूला। बल्कि आज जाकर लक्ष्य पा सका हूँ। बचपन से प्रयास कर रहा था। सभी जतन कर हार गया, अंत में साधू का चोला ओढ़ा। इससे कैरेक्टर में एक ऑथेंटिसिटी आती है, सारे काम आसान हो जाते हैं।''
मेरे वाले साधु ने अपना सिर धुना। काश! वह ऐन वक्त पर उसे कनफ़्यूज न हुआ होता...!
मोरल ऑफ़ दि स्टोरी, ''आदर्शवाद की अति कन्फ़्यूजन पैदा करती है। कथनी और करनी की सीमारेखा बिलकुल क्लीयर रखनी चाहिए।''
भाई, इन साधुओं का आपके साधुओं से कोई लेना देना नहीं है। साम्य केवल शीर्षक ''अटको नहीं, भटको नहीं'' का है। संत महात्मा गुस्ताखी माफ़ करें...
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ReplyDeleteThank You Ananda Sir and Anil Bhai...
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