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Monday, November 9, 2009

मेरी मर्ज़ी या खुदा की (भाग दो)...

सदगुरु रामक़ृष्ण परमहंस जी मेरी मर्ज़ी सर्वोपरी या खुदा की... प्रश्न का उत्तर देते हुए कहते हैं कि इस प्रश्न का जवाब खूँटी से बँधी गाय के उद्धारण से समझा जा सकता है. इंसान खूँटी में बँधी गाय के समान है. उसकी मर्ज़ी का दाय्ररा सिर्फ वहीँ तक है जितनी लम्बी रस्सी है. रस्सी की लम्बाई खुद, खुदा की मर्ज़ी पर मुनस्सर है. आगे सदगुरु कहते हैं कि जैसे जैसे इंसान अध्यात्मिक ऊँचाईयों की ओर बढ़ता है वैसे वैसे इस रस्सी की लम्बाई बढ़ती जाती है, उसकी मर्ज़ी का दायरा बढ़ता जाता है. 
अध्यात्मिक ऊँचाईयों को पाने का रस्ता ही अहंकार के त्याग का है. अवतार मेहेर बाबा कहते हैं
इच्छा करो कि इच्छा ही ना रहे. इच्छाओं का पूर्ण रूपेण त्याग ही तो इंसान को पैगम्बर, बुद्ध्, स्वय़ं कृष्ण और् राम बना देता है. वह इटर्नल लव, इटर्नल ब्लिस (परम प्रेम, परम आनन्द) की स्थिति में कभी ना लौटने के लिये पहुँच जाता है. उसे पूर्ण ज्ञान की प्राप्ति हो जाती है वह स्वय़ं साईं हो जाता है मेहेर हो जाता है.
 फिर किस बात का मेरा किस बात का तेरा, सब कुछ तेरा ही तेरा, तू खुद ही खुदा तेरी ही मर्ज़ी, तेरा ही जहाँ ये...
 खुदी ने खुदा से जुदा कर दिया
हाय, महज़ एक नुक़्ते ने ये क्या कर दिया...

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Jai Baba to You
Yours Sincerely
Chandar Meher

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