एक बार
पैगम्बर मोहम्मद साहेब के पास एक शख्स आया और उसने पूछा कि कृपया मुझे बताईये मेरी
मर्ज़ी बड़ी या खुदा की. क्या मैं अपनी मर्ज़ी से कोई काम कर सकता हूँ या फिर सब कुछ
उसकी मर्ज़ी से ही होता है. और अगर सब कुछ दैवी मर्ज़ी से ही होता है तो फिर मेरी
अपनी मर्ज़ी की ज़रूरत ही क्या है. इन दोनों मर्ज़ीयों में आपस का रिश्ता क्या है.
पैगम्बर
साहेब उस समय अपने शिष्यों के बीच मसरूफ थे. उन्होंने इस शख्स को बैठने को कहा और
फिर अपने शिष्यों से बात करने में वयस्त हो गये. थोड़ी देर रुकने के बाद उसने फिर
अपना सवाल दोहराया. पैगम्बर सहिब ने उसे खड़े होने को कहा.
पैगम्बर
सहिब फिर अपने शिष्यों से बात करने लगे. इस श्ख्स से रहा न गया. उसने कहा, कि पैगम्बर सहिब आपने मुझसे खड़े होने को कहा मैं
खड़ा हो गया हूँ अब कृपया मेरे सवाल का जवाब दे दीजीये. पैगम्बर साहिब ने बड़े सरलता
से उससे कहा कि एक पैर हवा में उठा कर खड़े हो जाओ. इस शख्स ने ऐसा ही किया.
पैगम्बर सहिब एक बार फिर अपने शिष्यों के बीच मसरूफ हो गये. अब तो इस इंसां से रहा
ही ना गया. इसका सब्र का बाँध ही जैसे टूट गया.
किसी
तरह अपने आप को सम्भालते हुये इसने फिर कहा कि आपके कहने के अनुसार मैंने एक पैर
भी हवा में उठा लिया है क़ृपया मेरी उत्सुकता को दूर कीजीये. पैगम्बर सहिब ने उसकी
ओर मुड़ते हुये कहा दूसरा पैर भी हवा में उठा लो. इस शख्स ने हैरान हो कर पूछा, “मैं ने जितनी बार आप से सवाल पूछा, आपने मुझसे कुछ न कुछ करने को कहा. आपने जैसा कहा
मैंने वैसा ही किया इसके बावज़ूद आपने मेरे सवाल का जवाब अभी तक नहीं दिया. अब आप
कह रहे हैं कि मैं अपना दूसरा पैर भी हवा में उठा लूँ. यह तो हो ही नहीं सकता. अगर
मैं अपना दूसरा हवा में उठाऊँगा तो ज़मीन पर गिर जाऊँगा. मैं खड़ा नहीं रह पाऊँगा”.
यह
सुनते ही पैगम्बर साहिब मुस्कुराये, फिर बोले, यही तुम्हारे प्रश्न का उत्तर है. इस इंसान ने
विनती की “मैं कुछ समझा नहीं. क़ृपया मुझे साफ तौर पर
समझायें”.
पैगम्बर
साहिब समझाते हुये बोले,
“पहला पैर हवा में उठाना तुम्हारे बस में
था वह तुम्हारी अपनी मर्ज़ी थी. इस पैर को तुम उठा पाये क्योंकि तुम्हारा दूसरा पैर
ज़मीन पर था. तुम्हारा यह दूसरा पैर ईश्वर की मर्ज़ी का द्योतक है जिसे तुम अपनी
मर्ज़ी होते हुये भी नहीं उठा पाये. तुम्हारा पहला पैर उठाना, दूसरे पैर के ज़मीन पर रहने पर निर्भर था इसी तरह
तुम्हारी अपनी मर्ज़ी खुदा की मर्ज़ी पर मुनस्सिर है. तुम्हारी अपनी मर्ज़ी तभी तक है
जब तक खुदा की मर्ज़ी है.
स्त्रोत:
परम प्रिय अवतार मेहेर बाबा के प्रेमी एवं रेसिडेंट श्री रुस्तम फलाहाटी द्वारा
लिखित “द रीयल ट्रेज़र” के डॉ.
(श्रीमती) मेहेर ज्योति कुल्श्रेष्ठ द्वारा अनुवादित तथा अवतार मेहेर बाबा
फाऊंडेशन लखनऊ द्वारा प्रकाशित पुस्तक “असली खज़ाना” से साभार.
बहुत अच्छा। अत्यंत शिक्षाप्रद प्रसंग है। हम यही सोच कर फूले नहीं समाते हैं कि हमने फलां-फलां काम कर लिया, बहुत तीर मार लिया, पर भूल जाते हैं कि हमारे प्रत्येक कार्य के पीछे उसी खुदा का हाथ है। उसके सपोर्ट के बिना खड़ा होना भी मुमकिन नहीं है।
ReplyDeleteबहुत अच्छा। इसी तरह प्रेरणादायक प्रसंग देते रहें। शुभकामनाएँ ।
- आनंद
बहुत बहुत धन्यवाद हौसलाअफज़ाई का. आपके शागिर्द हैं. आप के बताये रास्ते पर चल रहे हैं.
ReplyDeleteआपका चन्दर
vaah ji vaah kaya satik udahran pesh kiya hai aapne
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