Total Pageviews
Saturday, November 15, 2008
इक हसीना थी…http://google.co.in
बचपन में पढ़ी एक कहानी का नायक पहाड़ों के पार ऐसे गाँव की युवती से प्यार कर बैठता है जहाँ कोई भी देख नही पाता . यहाँ तक की किसी को आँखों के बारे में ज्ञान तक नहीं था। नायक नायिका की सुन्दरता की तारीफ़ करता है और उसका नख शिख विवरण देता है.नायिका खुशी से झूम उठती है और अपनी सहेलियों को बताती है की उसका प्रेमी क्या-क्या बातें उससे करता है? धीरे धीरे ये बात पूरे गाँव में फ़ैल जाती है की नायक के पास कुछ अलग सी चीज़ (आँखें) हैं . अंधों की पंचायत में उसकी पेशी होती है और नायक गाँव वालों को देखने के बारे में, अपनी आँखों की विशेषता के बारे में समझाने की असफल कोशिश करता है, बहुतेरी कोशिश करता है. वह समझाता है की वह नायिका से शादी करना चाहता है साथ ही शादी के बाद पहाडों के पर ले जा कर नायिका की आँखों को ठीक करवाना चाहता है. इस अनजान और अजीब सी बात से नाराज़ लोग शादी की इजाज़त इसी शर्त पर देते हैं की जोड़ा गाँव छोड़ कर कहीं नहीं जाएगा, साथ ही नायक इस अजीब से अंग को त्याग कर उनके जैसा ही हो जाएगा. प्यार में विवश हो कर , अन्याय को समझते हुए भी नायक विवाह के लिए राज़ी हो जाता है. नायक अपने आप को असमंजस की स्थिति में पाता है. एक तरफ़ दिल को तो एक तरफ़ अक्ल को पाता है. वह अनजान क्या करे?. लेकिन.............शादी की रात ही वह अकेले ही पहाड़ों के पार अपनी दुनिया में लौट जाता है. पहाड़ों के पार नायिका का गाँव आज का सिस्टम है. नायिका ... नायक का लक्ष्य है, जिसे वोह पाना चाहता है नायिका को पाने की चाहत फ़िर भी कुछ कर गुजरने की तम्मना है. शर्त मान लेना अपनी परिस्थितियों से समझौता कर लेना है. नायक का वापस लौट जाना, अपने आसमान की तलाश . शादी न कर पाना सिस्टम की मुखालफत की कीमत चुकाना. क्या इस कहानी को पढ़ कर आप के होठों पर भी यह शेर तैर जाता है: “क्या पूछते हो हाल मेरे कारोबार का आईने बेचता हूँ मैं अंधों के शहर में” अगर आप नायक की जगह होते तो क्या करते....??? क्या कहा अपने.....???
आप हमसे संपर्क कर सकते हैं chandar at the rate gmaildotcom
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
बाबा जी,
ReplyDeleteआज चिट्ठाजगत से आपके ब्लॉग का पता चला। एक आसान सी कहानी के माध्यम से आपने बड़ी पते की बात की है।
जीवन को देखने का आपका दृष्टिकोण निस्संदेह सराहनीय है।
बोझिल दर्शनशास्त्र के बदले आजकल इसी प्रकार के प्रेरणादायक प्रसंगों की आवश्यकता है। आज से हमें भी अपने भक्तों में शामिल समझें :-)
ओ क्या बात है बाबाजी। मज़ा आ गया। अरसा पहले बाबाओं पर एक ग़ज़ल लिखी थी। ऐसे नहीं, वैसे बाबाओं पर। ‘हंस’ और अन्यत्र छपी थी। तुसी वी पढ़ो:-
ReplyDeleteग़ज़ल
जिस समाज में कहना मुश्किल है बाबा
उस समाज में रहना मुश्किल है बाबा
तुम्ही हवा के संग उड़ो पत्तों की तरह
मेरे लिए तो बहना मुश्किल है बाबा
जिस गरदन में फंसी हुई हॉं आवाज़ें
उस गरदन में गहना मुश्किल है बाबा
भीड़ हटे तो हम भी देखें सच का बदन
भीड़ को तुमने पहना, मुश्किल है बाबा
अंधी श्रद्धा को, भेड़ों को, तोतों को
गर विवेक हो, सहना मुश्किल है बाबा
गिरें, उठें, फिर चलें कि चलते ही जाएं
रुके, सड़े तो सहना मुश्किल है बाबा